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शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

Jharkhand Panchayat Election: Mirage for tribal dream

Jiten das
The recently concluded Panchayat Election in Jharkhand has not only left number of unanswered questions but also cropped up new challenges for the tribal state. One side government has been patted their own back for the successful conducting of the election but other side it made the tribal people more vulnerable. 
The people of this land, who have been struggling to save their Forest-Land-Water since independence, now get another setback. In the name of de-centralization of the power from state legislation to grass-root legislation (read as Panchayat), the voice of protest against forcibly acquisition of their natural properties like Land-Water-Forest has been trying to manage.
Dampening the spirit of potent act PESA
The Panchayat Extension to Scheduled Areas (PESA) Act provides special provision for function of Panchayats so as to protect and promote the tribal interests in accordance with the spirit of the scheduled areas as enshrined in the constitution. Earlier, there were collective rights of the tribal people to decide about their Forest-Land and Water. It is the rights they inherit from their fore-father. They have been protecting it through their own system of governance. But, through this election, Government tried to de-recognize their traditional system. It is evident from the word ‘Consultation’ in place of ‘Permission or consent’ mentioned in the PESA. The Gram Sabhas in the PESA Act are central pillars of governance entrusted with significant role and substantive powers. However, the state legislations, perhaps by design, through a twist of legal language have taken away powers from the Gram Sabhas.        
However, the actual implementation of the Act tells an entirely different story. The state legislations have omitted some of the fundamental principles without which the spirit of PESA can never be realised. For instance, the premise in PESA that state legislations on Panchayats shall be in consonance with customary laws and among other things traditional management practices of community resources is ignored.
Ground realities
The PESA act not only managed on the paper. It is evident on the ground during election. The pumping up of un-imaginable amount of money in local body election is another area of concern. The question is quite evident that ‘who spent on whom and why?’ There have been 104 MoU signed in last 10 years. But none of the MoU grounded. There have been stiff resistances in Khoonti district against steel giant Arcellor Mittal. There have been resistance in Potaka, West SinghBhumi against Bhushan Steel, Jindal Steel, Essar, RPG.   
There has been pressure on the state government to implement all projects. The main stream parties like Congress, BJP and others sponsored the candidates on large scale. Where they couldn’t reach they tried to lure other candidates by money. Those industries, which were waiting from number of years to start their works, spent crores of rupees, distributed four wheelers to influence the election in their own favor.
Another amendment of PESA acts in favor of non-tribal evident here. In the notified scheduled Panchayat, Mukhiya seats are reserved but Dy. Mukhiya seats are un-reserved. They are trying to put their ‘own men’ in that place so it helps in soften the resistance against any acquisition. They have been pumping huge money for this post. An activist-Journalist Dayamani Barla, a vocal voice in Jharkhand who led the tribal movement against steel giant Arcellor-Mittal, expressed her apprehension that it would soon evident these Dy Mukhiya replace the tribal Mukhiya in collusion with administration and easily handover the natural resources to companies which sponsored them. It was evident from this fact of Ama Panchayat. The tribal group ‘Adivasi Moolvasi Astitva Raksha Manch’ had won 7 seats out of 9 seats. This group has majority to elect own Dy Mukhiya. But the rest two want to put their men as Dy Mukhiya. They have been ready to pay even 2 lakhs for this post!        
 Role of Maoists in this election
This election helped the Maoist to deepen its roots. They use Guns and Bullet to answer the Money power. In this way Maoists got sympathy from the tribal’s who found themselves helpless in front of money power. There were number of candidates in Gumla District, Khoonti District backed by Maoists and they elected without any opposition.  
Some unanswered question
Why the spirit of PESA damped in this election? Is it not true that parallel initiatives started by the state government undermining the traditional system of governance? There is Manki-Munda system, Parha system and other system existed. The whole Jharkhand movement was based on the revival of these traditional systems which is now undermined. Who is responsible for it?
Except few cities like Ranchi, Jamshedpur, Bokaro, and Dhanbad, the tribal’s are in majority. Their population are varies from 40% - 60%.  Under PESA act only 112 blocks are notified as Schedule areas. The rest blocks de-notified even there were sizeable population tribal’s population residing. It is another big challenge for the Government and tribals to how to meet out this problem in near future.
It could not be a good sign the way people and villages were divided during the election over the rights of their resources.

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

रीढ़

देवेन्द्र कुमार मिश्र

रीढ़ बहुत मजबूत है
या हद से ज्यादा बेशर्म
मंहगाई और बेशर्मी के
इस दौर में जब की
आंखों के साथ-साथ
गर्दन भी झुक गई है
आदमी लड़खड़ा रहा है
बेकारी, मिलावट, स्वार्थ
और बाजारीकरण के इस दौर से
शिक्षा और स्वास्थ्य बड़े
व्यवसाय में बदल गए हैं
ऐसे में जबकि रिश्ते-नाते
अर्थव्यवस्था
की चपेट में आकर आत्महत्या
कर रहे हैं
भूख से कम और धर्म से
ज्यादा लोग मर रहे हैं
पानी स्वयं शर्म से
पानी पानी होकर
उतर गया जमीन के बहुत नीचे
प्रदूषण से सुरबाला हो चाहे पुष्प
मुरछा रहे हैं चाहे कितना भी सींचे।
ऐसे समय में जबकि दोगले
और खोखले इंसानों की भरमार है
जहां घर हो, प्रेम हो, शादी हो
सभी कुछ व्यापार है
आदमी की रीढ़ की हड्डी
कैसे ठीक है पता नहीं
कहीं ऐसा तो नहीं
कि रीढ़ हो ही नहीं
किसी और तकनीक से पीठ का संतुलन
बना हो।
जो भी हो लेकिन यदि
रीढ़ है तो किसी आश्चर्य से कम नहीं।

 लेखक एक कवि है.

टी.आर.पी.

देवेन्द्र कुमार मिश्र
तुम सच बोल रहे हो
या किचड़ उछाल रहे हो
तुम्हें सच बोलना नहीं आता।
जो अपने विषय
में बोला जाए
दूसरे के बारे में बोलना
तुम्हारी व्यक्तिगत राय
राग द्वेष ज्यादा होता है
सच बोलना है
तो अपनी कहो
अपनी कमियां
अपने पाप अपने विचार कहो
अब तो धंधा हो गया
सच बताना
तुम न हुए
मीडिया हो गए।
झूठ का पर्दाफाश
प्रचार-प्रसार के साथ
और विज्ञापन भी बीच-बीच में
नीचे पट्टी चल ही
रही है एडवरटाइज की।
मामला निपटा नहीं
नतीजा मिला नहीं
इनको पहले ही
पता चल गया
सच क्या है।
ये न्यायधीश  हो गए
भगवान हो गए
सच के रक्षक हो गए
सच के कितने फंदे हो गए
कितने प्रकार से धंधे हो गए
सच के हिमायती धंधा नहीं करते
सच को झूठ
झूठ को सच करने वाले
ये कहो कि सारा
चक्कर बिजनेस का है
टी.आर.पी. का है।
लेखक एक कवि है.

शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

वजूद की तलाश में

  राहुल 
 जाड़ों के मौसम में जब गांव की तस्वीर जेहन में तारी होने लगे तो सबसे पहले जो चित्र उभरता है, तो वह गदराई मटर,  चने का खेत, अमरद का बगीचा और बगीचे में शुग्गा का टें टें । बात और आगे बढे़ तो पोखर और नदी तक जाती है। लेकिन हर गांव के नसीब में नहीं होता नदी। और नदी नसीब भी हो जायें तो सरहद का विवाद उसे इस तरह से उलझाए रहती है कि वह नदी होकर भी नहीं रह पाती नदी। सीमा विवाद इस कदर हावी हो जाता है कि वह उसे अपने अस्तित्व का ही संकट नजर आने लगता है। नदियां,  पक्षी,  पवन के झोकें कोई सरहद ना इनको रोकें... भले ही सरहद इंसानों के लिए हो लेकिन ये सरहद आज इंसानों से ज्यादा नदियों को रोक रही हैं,  फिर भी इंसानी जज्बात है कि मानता ही नहीं। वह बार-बार इन सरहदों को तोड़ना चाहता है यह अलग बात है कि वह तोड़ नहीं पाता। 
    सहादत हसन मंटो की भारत पाकिस्तान  बटवारें पर एक कहानी है टोबा टेक सिंह। टोबा टेक सिंह पागल है और वह जेल में बंद है। जब भारत पाकिस्तान का बटंवारा होता है तो जेल पाकिस्तान के हिस्से में आ जाती है टोब टेक सिंह को जब यह बात पता चलता है तो वह पेड़ पर चढ़ जाता है और कहता है कि न तो मैं हिंदुस्तान में हूं और न ही पाकिस्तान में, मै तो पेड़ पर हूं। टोबा टेक सिंह किसी भी देश में नहीं रहना चाहता।
टोबा टेक सिंह की तरह ही एक गांव है चमथा। नहीं नहीं टोबा टेक सिंह की तरह नहीं बल्कि इसके एकदम उलट। बिहार का यह गांव न तो समस्तीपुर में है न ही बेगूसराय में न मूंगेर में और न ही पटना में। ऐसा नहीं है कि यह गांव किसी जिले में रहना ही नहीं चाहता। इस गांव की बदकिस्मती है कि इसको कोई अपनाना ही नहीं चाहता।
     गंगा और बाय नदी से घिरा यह गांव चार जिलों के मुहाने पर है। समस्तीपुर, बेगूंसराय, मुंगेर और पटना से घिरे होने के कारण ही इस इसका नाम चमथा पड़ा। चमथा शब्द बना है चौमथ से जिसका अर्थ होता है चारों ओर से घिरा हुआ।
 बड़खुट, छोटखुट, मांझिलखुट, संझापुर, गोपटोला, लक्ष्मण टोला,  मंत्री टोला,  नंबर टोला सहित कुल 22 टोलों वाला यह चमथा गांव तीन जिलों के तीन लोकसभा और तीन  विधानसभा क्षेत्रों में पड़ता है। बड़खुट, छोटखुट और मांझीलखुट बेगूंसराय के बछवाड़ा विधानसभा में, मंत्री टोला समस्तीपुर के सरायरंजन विधानसभा और नंबर टोला पटना के मोकामा विधान सभा क्षेत्र में पड़ता है।
समस्तीपुर से 35 किमी की दूरी तय कर जब आप इस गांव में पहुंचेंगे तो स्वागत करने के लिए जहां से गांव की चैहद्दी होती है आम और कटहल के पेड़ आपस में गुत्थम गुत्थी करते नजर आएंगे। इनमें होड़ लगी रहती है कि आगंतुक का स्वागत सबसे पहले कौन करें। सिवान में लहलहाती फसल देखकर मन मयूरी हो जाता है। एक हवा का झोंका आता है और इन फसलों में कंघी करके चला जाता है। खेतों में लहलहाती यह हरियाली हर आने जाने वालों का स्वागत बड़े ही अपनेपन से करती है। इनको क्या पता कि विवाद कहां हैं। वैसे भी विवाद तो इंसानों में हैं वह भी नेताओं और नौकरशाहों द्वारा पैदा की गई। पेड़ों का झुरमुट पार कर जैसी ही आप गांव की आबादी में प्रवेष करेंगे तो आपको लगेगा ही नहीं कि आप ऐसे गांव में हैं जो अपने अस्तित्व की लड़ाई लंबे समय से लड़ रहा है। चमथा तक पहुंचने के लिए जिस कच्ची सड़क से काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है उसके अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि बिहार में विकास का शोर चाहे जितना हो लेकिन इस गांव को देखकर लगता ही नहीं है कि विकास रूपी चिड़िया ने कभी यहां पर भी पर मारे हों।
पूरा गांव छान मारिए कहीं भी बिजली और टेलीफोन के तार का दर्शन नहीं होगा। गांव की गलियों में कहीं-कहीं खडंजे का दर्शन हो जाता है। अन्य गांव की तरह ही यहां के बच्चे भी दिया और लालटेन की रोशनी में ही काला अक्षर बाचा करते हैं। यादव और राजपूत बहुल यह गांव मिथिला संस्कृत के काफी करीब है। यहां होने वाले तीज त्यौहार एवं वैवाहिक कार्यक्रम बिल्कुल मिथिला की तरह ही मानाए जाते हैं। मिथिला के तरह ही उपनयन संस्कार का महत्व यहां भी ब्याह से अधिक है।
   अपने वजूद के लिए जद्दोजहद करता यह गांव आजादी के 63  साल बाद भी नहीं समझ पा रहा है कि वह क्या करें। किसके आगे अपना दुखड़ा सुनाए। आज तक इसकी पुकार सुनकर किसी के कानों में कुलबुलाहट तक नहीं हुई।     

युवाओं के देश में युवाओं का स्थान

उमेश कुमार 

भारत युवाओं का देश है। हमारे देश में युवाओं की संख्या लगभग 56 प्रतिशत है जो दुनिया के सभी देशो से अधिक से अधिक है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इन युवाओं की वर्तमान स्थिति क्या है और इनका भविष्य क्या होगा। देश केवल युवाओं से विकास की डगर पर आगे नहीं बढ़ सकता है इसके लिए आवष्यक है कि उन्हें सही दिशा-निर्देश मिले और अवसर मिले। अर्थशास्त्रीयों का मानना है कि जनसंख्या दुधारी तलवार की तरह होती है अगर उसका सही से इस्तेमाल नहीं किया जाता है तो वह इस्तेमाल करने वाले का भी गला काटने से हिचकती नहीं है। भारत के हाथ में यह जो तलवार है यह भारत को विकास के मार्ग पर आगे ले जाएगी या विनाश के गर्त में जाएगी इस पर विचार करने का समय आ गया है।

बेरोजगारी का अंदाजा इसी बात लगाया जा सकता है कि एक एमबीए करना वाला उत्तर प्रदेश में होमगार्ड के लिए आवेदन कर रहा तो एक बरेली से आईटीबीपी की भर्ती के लिए 410 सीटों के लिए लाखों लोग जा रहे हैं। एक चपरासी की भर्ती निकलती है तो उसके लिए भी सुशिक्षित लोग अपना आवेदन करने में नहीं हिचकते हैं। ऐसी कोई एक दो खबरें नहीं हैं कि उन्हें गिना जा सके देश में आए दिन ऐसी घटनाएं घटती रहती हैं।
युवाओं के नाम पर तो भारत में चुनाव तक लड़ा जा रहा है। हर दल का अपना एक युवा संघ है जो युवाओं की बात करता है। आज ही नहीं इतिहास के हर कालखण्ड में ‘युवापन’ और ‘युवाजन’ की महत्ता को स्वीकार किया जाता रहा है। समाज ने इन्हें अपनी ताकत समझा है तो राज्य ने अपना हथियार और बाजार ने अपने व्यापार का मूल आधार। लेकिन कमोवेश सब ने इन्हें अपने एजेंडे के केन्द्र में रखा है। यह अलग बात है कि इनकी आवश्यकता, आकांक्षा और भावनाओं को कितना समझा गया, इनकी कितनी कदर की गई या फिर उनके लिए कितने प्रयास किये गये, ये सदैव सवालों के घेरे में रहे हैं। सभी तरह के संघर्षं, आंदोलनों और रचनात्मक प्रयासों में अग्रणी भूमिका निभाने वाले ये युवाजन हमेशा अपने वर्तमान के संकट और संत्रास के सबसे अधिक भोक्ता रहे हैं।
देश की इस युवा शक्ति को राजनीतिक दल एक हथियार के रुप में उपयोग करते हैं और अपना काम निकाल लेने के बाद उनकी समस्याओं की ओर ध्यान नहीं दिया जाता है। इस समस्या के लिए अगर किसी को जिम्मेदार माना जाता है तो वह हमारी शिक्षा व्यवस्था है। शिक्षा व्यवस्था को ही हमारे देश अधिकतर विद्वान, नेता, अधिकारी यहां तक की सभी जिम्मेदार मानते हैं। आखिर यदि शिक्षा व्यवस्था में इतनी कमी है तो उसमें सुधार क्यों नहीं किए जाते हैं। हकीकत तो यह है कि देश में रोजगार के अवसर भी कम हो रहे हैं। अभी हाल ही में मध्यप्रदेश राज्य विद्युत निगम का ही उदाहरण लें। इसने आपने आधे से अधिक पदों को खत्म कर दिया है। पंजाब में बिजली को ठेके पर दिए जाने की बात हो रही है। स्कूलों में शिक्षकों की जगह पैराशिक्षकों से काम चलाया जा रहा है तो विष्वविद्यालयों में अतिथि शिक्षकों से। रिटायरमेंट की अवधि 60 से बढ़ाकर 62-65 की जा रही है और दूसरी तरफ रोजगार के अवसरों को कम किया जा रहा है ऐसे में यह कहा जाए कि केवल हमारी शिक्षा व्यवस्था में कमी है तो सही साबित नहीं हो सकती है।  
कहा जाता है ‘‘जिस ओर जवानी चलती है उस ओर जमाना चलता है’’ तो हमारे देश की जवानी किस ओर जा रही है? इसका पता होना देश के नीति निर्माताओं के लिए आवष्यक है। अगर हम मध्य प्रदेश की बात लें तो अभी तक यहां केवल वृद्ध किसान ही आत्महत्या करते थे लेकिन अब युवा भी आत्म हत्या करने लगे हैं। अभी हाल ही में एक युवा मजदूर महू निवासी लगभग 24 वर्षीय रमेश कुमार ने अपने अंग को बेचने की पेश कश की। इन्दौर के मुख्य चिकित्सा अधिकारी से कहा ‘‘सर मुझे आंख बेचनी और मैं कमजोर आंखे लगवा लूंगा।’’ जिस देश की जवानी अपने शरीर के अंगों को बेचने को तैयार उस देश का भविष्य क्या होगा यह तो आने वाला कल ही बताएगा। लेकिन यह तो तय है कि यदि यही हाल बरकरार रहा तो वह दिन दूर नहीं जब आत्महत्या की महामारी वृद्धों से युवाओं को बहुत ही जल्द अपनी चपेट में ले लेगा।

लेखक माखनलाल ... विश्वविद्यालय में एम.फिल मीडिया अध्ययन का  छात्र

रविवार, 6 फ़रवरी 2011

ये है "कलयुगी पंच परमेश्वर"


 राहुल
उप संपादक 
राज एक्सप्रेस, भोपाल
इसे क्या कहेंगे जब तथाकथित मामा अपने पांच साल की गौरव गाथा की बखान सुन और सुना रहे थे तो उसी समय शिव  के तांडव से कई गुना अधिक तांडव होता है एक महिला पर। अलीराजपुर के नेहतड़ा की रहने वाली केलबाई को जाति पंचायत सजा देती है गांव निकाला। गुनाह भी क्या? सुनेंगे तो सजा सुनाने वालों पर आग बबूला ही होंगे। नही तो कम से कम आप के खून में उबाल तो आएगा ही और रुढ़िवादी सामाजिक व्यवस्था पर अपने आप पर शर्मसार महसूस करेंगे।
   गरीबी से जूझते कुछ लोग काम की तलाश  में शिव के राज से पलायन करते हैं गुजरात के लिए। नेतहड़ा के अनसिंह व उनकी पत्नी केलबाई भी पेट की आग को शांत करने के लिए रोटी की तलाश में गुजरात चले जाते हैं। गांव का एक भुरू सिंह भी जाता है काम की तलाश में। दबंग किस्म का भुरू सिंह अपने दबंगई के बल पर केलबाई का अपहरण कर लेता है और एक महीने तक गुजरात के अहमाद में एक मकान में कैद कर रखता है। केलबाई ज्योंहि भुरू सिंह के बाहुपास के जकड़न से अपने आप को ढिला महसूस करती है वहां से निकल भागती है। और सबसे पहले पहुंचती है अपने मां के पास जो दुख की घड़ी में सबसे पहले याद आती है। अपने मायके धार जिले से वह पहुंचती है अपने ससुराल अलीराजपुर जहां उसका अपना वजूद है। जैसे द्रोपदी का था अपने ससुराल में।
    महाभारत में द्रोपदी अपने पतियों द्वारा ही जुए के दावं पर लगाई जाती है और दुःशासन भरे सभा में द्रोपदी का बाल पकड़ कर खिचता है। नेतहड़ा में केलबाई के साथ ऐसा तो नहीं पर इससे कम भी नहीं होत। द्रोपदी तो अपने पतियों की कारस्तानी की सजा भुगत रही थी तो केलबाई को उसके पति  ने किसी जुए में नहीं हारा था बल्कि केलबाई का अपहरण कर लिया गया था और अपहरण होने की सजा मिली मार।
    अपहरण से मुक्त होने के बाद जब केलबाई अपने घर पहुचती है तो उसे सहानुभूति के बदले मिलती है मार वो भी सुसर के द्वारा। पति अनसिंह केलबाइ को तो अपनाना चाहता था लेकिन अनसिंह के चाचा लालसिंह को यह तनिक भी बर्दाश्त नहीं होता और जाग उठता है मर्दवादी सोच। गांव के सरपंच मुकाम सिंह को साथ लेकर केलबाई को सजा देने के लिए तलवार भाजने लगते हैं।
     सरपंच मुकाम सिंह द्वारा भिलाल समाज की पंचायत बुलाई जाती है जिसमें परमेश्वर रूपी पंच केलबाई को गांव निकाले की सजा सुनाते हैं। साथ ही साथ बाल मुड़वाकर सिर में लाल रंग लगा दिया जाता है। अनसिंह के चाचा लालसिंह केलबाई के चचिया ससुर केलबाई को भरी पंचायत में बेल्ट से लहुलूहान करते हैं और पंच परमेश्वर हर्षित होते हैं। इन पंचो के मुंह से विरोध का एक भी शब्द भी नहीं निकलता।
   जिस तरह से खाप पंचायतो में पंच परमेश्वर फैसले सुनाकर कोड़े लगाने, गांव में आने पर हत्या कर देने का फरमान जारी किया जाता है उसी तरह का न्याय होता अलीराजपुर के नेतहड़ा में होता है। खाप पंचायतो में जहां मौत का फरमान जारी किया जाता है वहीं भिलाल जाति पंचायत में अपहरण की भुक्तभोगी महिला को पति के साथ गांव से निकल जाने का आदेश दिया जाता है। ऐसा न करने पर अनसिंह के परिवार वालों का जाति से हुक्का पानी बंद करने का फैसला किया जाता है। जबकि अपहरणकर्ता भुरू सिंह के बारे में पंचायत कोई भी सजा मुकर्रर नहीं करती है। जब सभी जानते हैं कि अपराधी भुरू सिंह है। खाप पंचायतो का सच यही है। वह पुरूष के खिलाफ बोलने से कापने लगती है। ऐसी पंचायते सीधे तौर पर केवल महिला की ही गलती मानते हैं। इस घटना के बारे में पंचायत कुछ इसी तरह से सोचती है। सजा के बारे में सुनकर लगता है कि अपहरण भुरू सिंह ने नहीं बल्कि केलबाई ने किया था। आज के न्याय का यही पैमान है।
  केलबाई जब जाति पंचायत के इस फैसले के खिलाफ रोबिले प्रशासन के पास जाति है तो प्रशासन अपने पूरे रौब में दबिश देकर 16 लोगों को गिरफतार कर लेती है। लेकिन कुछ शातिर किस्म के पंच पुलिस को चकमा देकर आज भी फरार है।
       केलबाई की लहूलुहान शरीर  महिला आयोग के दफत्तर तक पहुंच चुकी है। अब देखना यह है कि केलबाई इस  चोटपर मरहम लगाने वाला फैसला कब तक हो पाएगा।
  जरा इनकी भी सुनें
गृह मंत्री उमाशंकर गुप्ता
"पीड़ित महिला के साथ अन्याय हुआ है। रिर्पोट के तुरंत पुलिस ने कार्यवाही करते हुए अपराधियों के खिलाफ मामला दर्ज कर गिरफ्तार कर ली है।"
प्रभारी मंत्री महेंद्र हार्डिया
‘‘महिला के साथ अत्याचार को सहन नहीं किया जाएगा। पुलिस से विस्तृत रिपोर्ट लेकर सख्त कार्रवाई की जाएगी। ’’
राज्य महिला आयोग
‘‘यह घटना अत्यंत निंदनीय है। कलेक्टर से रिपोर्ट मंगाई जा रही है। उसी के आधार पर कार्रवाई की सिफारिश की जाएगी।’’

शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

...जय बोलो बलवान की

कुल जिला पंचायत-72           
परिणाम घोषित-71

बसपा-55, सपा-10, कांग्रेस-02 , रालोद-02, जनवादी-01 , भाजपा-01

जिला पंचायत सदस्यों की संख्या 39। प्रत्याशी का दावा कि 27 उसके साथ हैं। लेकिन लोकतंत्र का चमत्कार। बनारस में ऐन मौके पर अपना दल के प्रत्याशी अनिल पटेल ने नाम वापस ले लिया। परदे के पीछे के खेल पर मत जाइए। बस नतीजे की सोचिए। नतीजा है बसपा प्रत्याशी मधुकर मौर्य का निर्विरोध निर्वाचन। मधुकर मौर्य विधायक बंधु उदय लाल मौर्य और अनिल मौर्य के भतीजे हैं। यह कहानी किसी एक जिले भर की नहीं है। सूबे में यह पहला अवसर है जबकि जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में 23 प्रत्याशी निर्विरोध निर्वाचित हुए हैं। इन सभी निर्विरोध प्रत्याशियों की खूबी है कि वे सत्तासीन बसपा पार्टी के समर्थक हैं। सूबे के 23 जिलों में बसपा समर्थक उम्मीदवारों का निर्वाचन महज संयोग नहीं है।
सोशल इंजीनियरिंग के जरिए राज्य की सत्ता हासिल करने वाली बसपा ने इस बार जिला पंचायत चुनावों में नौकरशाही का सफल प्रयोग किया है। पार्टी पर आरोप है पंचायत चुनावों से पहले सूबे के आला अफसरानों की एक टीम बनाई गई थी जिसका काम जिलेवार बसपा उम्मीदवारों के जीत का मार्ग प्रशस्त करना था। नतीजन सूबे के 72 जिला पंचायतों में से 55 जिलों में जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी पर बसपा समर्थकों को विजयी हुए। सपा ने दस जिलों में कब्जा जमा कर यह साबित किया है कि वह अभी भी  प्रमुख विपक्षी दल तो है ही, साथ ही विपरीत परिस्थितियों में सत्ताधारी दल से टकराने की कूवत उसमें अन्य दलों के मुकाबले अधिक है। कांग्रेस ने दो, भाजपा ने एक, रालोद ने दो और जनवादी पार्टी ने एक जिले में पंचायत अध्यक्ष पद पर जीत हासिल कर अपनी उपस्थिति बनाये रखी है। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने जहां गृह जिले इटावा में पार्टी को विजय दिला कर प्रभुत्व कायम रखा, वहीं कन्नौज क्षेत्र में अखिलेश यादव सहित कई जिलों में सपा नेता अपनी प्रतिष्ठा बचाने में असफल रहे। कांग्रेस ने यूं तो जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव न लड़ने की घोषणा की थी, फिर भी सोनिया गांधी के रायबरेली व राहुल की अमेठी के जिला पंचायत अध्यक्ष पद पर कांग्रेस का ही कब्जा रहा। लोकदल मुखिया अजित सिंह बागपत में और उनके बेटे जयंत चौधरी मथुरा में अपने प्रत्याशी को विजय दिलाने में कामयाब रहे। पूर्व मंत्री व प्रतापगढ़ की कुंडा विधान सभा क्षेत्र के विधायक रघुराज प्रताप सिंह का तिलिस्म भी इस बार टूट गया। काफी समय से जिले की पंचायत पर उनका दबदबा कायम रहता था लेकिन इस बार शासन की दंबगई के सामने वह भी नाकाम रहे।
माना जा रहा है कि इन चुनावों में सत्ता की हनक और ब्यूरोक्रेसी का भरपूर प्रयोग हुआ। विपक्ष का आरोप है कि जिला पंचायत सदस्य के चुनाव में सपा के जीत से बसपा हताश थी इसलिए अध्यक्ष का चुनाव येन केन प्रकारेण जीतना चाहती थी। जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव जीतने के लिए बसपा ने हर जिले में पांच-छह करोड़ रुपये भेजे। जिसका उपयोग सदस्यों की खरीद फरोख्त में किया  यानी परदे के पीछे पैसे, पद, बल का जमकर चुनाव हुआ। परदे के पीछे के इस असली खेल के आगे चुनाव आयोग बौनी साबित हुई। इससे विपक्ष को राज्य निर्वाचन आयोग की भूमिका पर उंगुली उठानी शुरू कर दी। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने आरोप लगाया है कि चार-पांच को छोड़ प्रदेश के अधिकतर जिलों में डीएम और एसपी सत्ताधारी दल के उम्मीदवारों को जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव जिताने के लिए तमाम हथकंडे अपना रहे हैं। डीएम व एसपी जिला पंचायत सदस्यों को प्रमाणपत्र देने के बहाने बुलाकर उन्हें सत्ताधारी दल के उम्मीदवारों के पक्ष में मतदान करने के लिए धमका रहे हैं। बसपा उम्मीदवार के पक्ष में वोट डालने के लिए खुलेआम फरमान जारी कर रहे हैं, छापे भी मार रहे हैं। कानपुर के जिलाधिकारी ने सपा कार्यकर्ताओं की बैठक से पार्टी के उम्मीदवार को उठवा लिया और उस पर नामांकन का पर्चा वापस लेने के लिए दबाव बनाया। घटना के बारे में उन्होंने राज्य निर्वाचन आयुक्त से फोन पर शिकायत की लेकिन उन्होंने कुछ नहीं किया। यह लोकतंत्र का मजाक है। मुलायम सिंह यादव ने कहा कि इसकी शिकायत केंद्रीय निर्वाचन आयोग से की जाएगी। 
 हर तरफ सत्ता की जय
प्रदेश के रामपुर वाराणसी, चन्दौली, बांदा, मेरठ, बुलन्दशहर, बिजनौर, ज्योतिबा फुलेनगर, कांशीरामनगर, हमीरपुर, कौशाम्बी, उन्नाव, लखनऊ, लखीमपुर खीरी, श्रावस्ती, बलरामपुर, गोरखपुर, कुशीनगर, गौतमबुद्धनगर, महोबा गाजियाबाद व सीतापुर में बसपा समर्थक उम्मीदवारों का निर्विरोध निर्वाचन हुआ है। लखनऊ में विधान परिषद सदस्य राम चंद्र प्रधान के भाई धर्मेन्द्र के खिलाफ कोई खड़ा नहीं हुआ। यहां सपा के घोषित उम्मीदवार पर्चा दाखिल करने ही नहीं गए। इतना ही नहीं सपा समर्थक सुनीश मौर्य बसपा प्रत्याशी धर्मेंद्र के प्रस्तावक बन गए। उन्नाव में पाला बदल हुआ। पिछले चुनाव में सपा के सांसद रहे जय प्रकाश रावत अब बसपा के राज्यसभा सदस्य हैं और उनकी पत्नी ज्योति रावत इस बार भी निर्विरोध हैं। वन मंत्री फतेहबहादुर सिंह की पत्नी साधना सिंह गोरखपुर में निर्विरोध चुनाव जीत चुकी हैं। पूर्व सांसद रिजवान जहीर की पत्नी हुमा रिजवान भी बलरामपुर में निर्विरोध जीती हैं। जाहिर है कि ऐसा किसी प्रत्याशी विशेष के प्रति श्रद्धा की वजह से नहीं हुआ बल्कि यह सत्ता की हनक थी। जो ताकतवर रहे, उन्होंने अपने ढंग से योंजना बनाई और राह के श्कांटोंश् को नियोजित ढंग से दूर भी किया।
ऐसा सिर्फ इस बार ही नहीं है। पिछले बार सपा का शासन था और तेरह प्रत्याशी निर्विरोध थे। इनमें आठ के खिलाफ तो किसी ने परचा तक नहीं भरा था, पांच ने बाद में नाम वापस ले लिया। 69 जिलों के चुनाव में सपा ने 46 पर जीत हासिल कर ली थीं। तत्कालीन पिछड़ा वर्ग कल्याण मंत्री महबूब अली अपनी पत्नी सकीना बेगम को चुनाव जिताने में सफल रहे थे। तब के उद्यान मंत्री राजकिशोर सिंह की मां शारदा सिंह बस्ती से चुनाव जीती थीं। इसके साथ ही हरदोई में नरेश अग्रवाल के भाई मुकेश अग्रवाल और तब सपा के सांसद रहे जयप्रकाश रावत की पत्नी ज्योति उन्नाव से चुनाव जीती थीं।
हाल ही में संपन्न ग्राम पंचायत चुनावों में बसपा ने भले ही पार्टीबाजी पर रोक लगा दी हो लेकिन जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव में निर्विरोध निर्वाचन का दम भरने से खुद को नहीं रोक सकी। दूसरी पार्टियों के परिवारवाद को कोसने वाली बसपा सुप्रीमों ने सूबे में शक्ति हासिल करने के लिए पार्टी में व्याप्त परिवारवाद व भाई भतीजावाद को भी नजरदांज कर दिया। नतीजन गोरखपुर से मंत्री फतेहबहादुर की पत्नी साधना सिंह, बाराबंकी से मंत्री संग्राम सिंह के भाई की पत्नी शीला सिंह, देवरिया से दर्जा मंत्री श्रीनाथ की पत्नी बालेश्वरी, बदायूं से विधायक डीपी यादव के साले की पत्नी पूनम यादव, मुजफ्फरपुर से विधायक शाहनवाज राणा की पत्नी इंतखाब राणा, उन्नाव से सांसद जयप्रकाश रावत की पत्नी ज्योति रावत, हरदोई से सांसद नरेश अग्रवाल के भाई की पत्नी कामिनी अग्रवाल, वाराणसी से विधायक उदय मौर्य के भतीजे मधुकर मौर्य, आगरा से विधायक भगवान सिंह कुशवाहा के पिता दौलतराम, फरूखाबाद से विधायक ताहिर हुसैन, फिरोजाबाद से विधायक प्रमोद कुमार, रामपुर से मंत्री अकबर हुसैन के दामाद अब्दुल सलाम, प्रतापगढ़ से मंत्री स्वामी प्रसाद के भतीजे प्रमोद मौर्य ने अध्यक्ष पद की कुर्सी हासिल की। इन नतीजों से साफ है कि जिसकी लाठी उसकी भैंस।
सूबे में भले ही सबसे ज्यादा जिला पंचायत सदस्य सपा के जीते हों लेकिन जिला पंचायत अध्यक्ष की अधिकतर कुर्सी पर बसपाई ही बैठेंगे। काबिलेगौर है जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव यही सदस्य करते हैं। आखिर बैठे भी क्यों न, जब सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का। जाहिर है कि लोकतंत्र के पहिए को श्रसूखवालोंश् ने अपने ढंग से नचाया। एक दूसरा सच यह भी है कि हर जिले में जिला पंचायत सदस्य उनकी धुन पर नाचने को आतुर भी दिखे। कानपुर नगर का ही उदाहरण लें। कानपुर नगर में सपा समर्थित उम्मीदवार योगेन्द्र सिंह ने समय सीमा के बाद नाम वापस लिया, जिस पर परिवारवालों की ओर से थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई गई और जिला निर्वाचन अधिकारी को सूचित किया गया कि कुछ लोगों ने योगेन्द्र सिंह को जबरन रोक लिया था, इसलिए वह समय पर नाम वापस लेने नहीं पहुंच पाये थे। सपा के समर्थन से चुनाव लड़ रहे योगेंद्र सिंह ने महज कुछ घंटों में चुनाव लड़ने का अपना इरादा बदल दिया। मामला विवादास्पद है, लेकिन यह तो साफ हो ही जाता है कि सियासी निष्ठाएं गिरगिट की तरह रंग बदलती रहीं। बड़े से बड़े दल भी अपनों भरोशा न कर सके। सिद्धार्थनगर में बसपा समर्थित उम्मीदवार प्रमोद कुमार को निर्विरोध निर्वाचित घोषित किया गया। यहां पर साधना चौधरी का नामांकन पत्र इसलिए खारिज कर दिया था, क्योंकि उनके नाम का प्रस्तावक व समर्थक ने खुद के दिखाए हस्ताक्षर को जिला निर्वाचन अधिकारी के समक्ष उपस्थिति होकर फर्जी बता दिया। इसके पहले साधना चौधरी ने अपने इन प्रस्तावकों के अपहरण का आरोप लगाया था।
इन पंचायत चुनावों में सत्ता की हनक इस कदर हावी रही कि अदालत को बार-बार हस्तक्षेप करना पड़ा।  इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्देश पर राज्य निर्वाचन आयोग ने मथुरा के डीएम एनजी रविकुमार, जो जिला निर्वाचन अधिकारी भी हैं को तत्काल हटाने और वहां नया डीएम तैनात करने का आदेश दिया। मथुरा के मिथलेश कुमार तथा अन्य ने न्यायालय में याचिका दायर करके अनुरोध किया था कि मथुरा के डीएम को हटाया जाए क्योंकि परिचय पत्र देने के बहाने वह पंचायत सदस्यों को अपने आवास पर बुला रहे हैं और उन्हें डरा धमकाकर सत्तारूढ़ समर्थित उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करने का दबाव डाल रहे हैं। आयोग ने हाईकोर्ट के आदेश पर बाराबंकी में केन्द्रीय सुरक्षा बल के साये में मतदान और मतगणना कराने का निर्देश दिया। यहां पर कुछ लोगों ने याचिका दायर करके आरोप लगाया था कि प्रदेश के एक मंत्री के दबाव में स्थानीय पुलिस बसपा कार्यकर्ता के रूप में काम कर रही है और बसपा उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करने के लिए धमका रही है। इसलिए स्थानीय पुलिस को चुनाव प्रक्रिया से अलग रखा जाए। अदालत ने आयोग को निर्देश दिया कि वहां पर चुनाव केन्द्रीय बल की सुरक्षा में कराया जाए तथा स्थानीय पुलिस को मतदान एवं मतगणना स्थल से 200 मीटर दूर रखा जाए। इस चुनाव में नवनिर्वाचित जिला पंचायत सदस्यों को पहचान पत्र देने को भी लेकर कई जिलों से आयोग को शिकायत प्राप्त हुई थी। इस पर आयोग ने जिलाधिकारियों को निर्देश दिया कि पहचान पत्र देने के साथ सदस्यों की सुरक्षा की जिम्मेदारी जिला निर्वाचन अधिकारी की होगी। अगर कोई सदस्य परिचय पत्र लेने नहीं आया है तो उसे मतदान करने से रोका नहीं जाए। बिना परिचय पत्र के ही मतदान करने की अनुमति देने का कहा गया है और कहीं किसी प्रकार का संदेह हो तो पूर्व में उसके द्वारा दाखिल नामांकन पत्र के हस्ताक्षर से मिलना किया जा सकता है। किसी मतदाता के साथ उसकी मर्जी के बिना सहायक ले जाने की इजाजत भी आयोग ने नहीं होगी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर राज्य निर्वाचन आयोग ने एटा के जिलाधिकारी को चुनाव परिणाम स्थगित रखने के निर्देश दिये हैं। आयोग के अनुसार एटा के जिला पंचायत अध्यक्ष जुगेंद्र सिंह यादव ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर कहा था कि चूंकि पांच साल का उनका कार्यकाल 14 जनवरी को पूरा होगा इसलिए तब तक के लिए अध्यक्ष पद के लिए होने वाले चुनाव परिणाम स्थगित रखे जाएं। इस पर कोर्ट ने राज्य सरकार को चुनाव प्रक्रिया न रोककर जिला पंचायत का कार्यकाल पूरा करने के आदेश दिये। पंचायत चुनावों में सत्ता की दबंगई भले ही जनता के चुने प्रतिनिधियों पर लागू हो गई लेकिन देखना है कि आने वाले विधानसभा चुनावों में क्या यह जनता पर भी लागू होगी या फिर जनता का पलटवार चलेगा।
 

सदाबहार बयान

प्रधानमंत्री
भ्रष्टाचार में लिप्त किसी भी मंत्री को बक्षा नहीं जाएगा। जांज के बाद इस पर फैसला लिया जाएगा।
(माना की आज तक किसी को कोई सजा नहीं मिली है।)


पुलिस
मामला दर्ज कर लिया गया। अपराधी को जल्दी ही गिरफ्तार कर लिया जाएगा।
(पता नहीं जांच कब तक चलेगी और आरोपी कब गिरफ्तार होगा।)

गृहमंत्री
आतंकवाद को जड़ से मिटा दिया जाएगा। .... जो हुआ वह बहुत ही बुरा हुआ। कमी कहां रह गई है इसकी जांच की जाएगी।
(जांच चलती रहेगी। यहां न सही वहां सही आतंकवादी घटना होती रहेगी।)

आतंकवादी घटना के बाद प्रधानमंत्री
मैं इस घटना की निंदा करता हूं। सर्वदलीय बैठक में इस पर क्या किया जाए निर्णय लिया जाएगा। (बैठकों का दौर जारी है और रहेगा भी।)

कपिल सिब्बल
षिक्षा व्यवस्था को इस कदर बना देना है कि गांव का बच्चा भी उच्च स्तर की षिक्षा प्राप्त कर सके।
(षिक्षा व्यवस्था का हश्र है यह तो कोई उत्तर प्रदेश या बिहार के गांवों में जाकर देखे जहां एक ही अध्यापक तीन स्कूलों में पढ़ता है।)

मायावती
केन्द्र राज्य सरकार को पैसे देने में भेदभाव बरत रही है। इससे प्रदेश के विकास में बाधा उत्पन्न हो रही है।
(खुद को जब बाबा की प्रतिमा लगवाने से कुछ पैसा बचे तो प्रदेश के हित में लगे। लेकिन अफसोस की प्रतिमा महंगी बहुत है।)

नीतीश कुमार
जनता ने मुझ पर भरोसा जताया है अब हमें जनता के भरोसे पर खरा उतरना है।
(समय ही इसका फैसला करेगा भाई की जनता का फैसला सही है या गलत)

राहुल गांधी
देश के युवा आगे आएं और देश को एक नई दिशा दें। युवा ही देश को आगे बढ़ा सकते हैं।
(युवा कितने साल के लोगों को कहते हैं भाई)
हम भी आपके बीच में रहना चाहते हैं एक सवाल की तरह? तलाशना चाहते है हर उस सवाल का जबाब जो करता है हर आम नागरिक को परेशान. हमारा उद्देश्य यह है की हम भी दे सकें कुछ हिम्मत इस देश के लिए संघर्ष करने वालों को. उन लोगों को चाहते हैं देश का विकास सही दिशा में हो. जो चाहते हैं देश के हर नागरिक को मिले उसका अधिकार. जो चाहते हैं हर नागरिक की सुनी जाये बात.
इस पत्रिका और ब्लॉग के माध्यम से हम केवल और केवल यही चाहते है कि हर सच सामने आये. उसकी कीमत चाहे जो कुछ हो. हम देश के हर उस नागरिक को इस पर लिखने के लिए आमंत्रित करते है जो अपने विचारों को व्यक्त करना चाहते हैं. स्वागत है आप इस ब्लॉग और Potlitical स्पार्क पत्रिका.
हमें आशा है कि हमें देश के नागरिकों का भरपूर सहायता मिलेगा.
आपका अपना
पॉलिटिकल स्पार्क