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बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

रीढ़

देवेन्द्र कुमार मिश्र

रीढ़ बहुत मजबूत है
या हद से ज्यादा बेशर्म
मंहगाई और बेशर्मी के
इस दौर में जब की
आंखों के साथ-साथ
गर्दन भी झुक गई है
आदमी लड़खड़ा रहा है
बेकारी, मिलावट, स्वार्थ
और बाजारीकरण के इस दौर से
शिक्षा और स्वास्थ्य बड़े
व्यवसाय में बदल गए हैं
ऐसे में जबकि रिश्ते-नाते
अर्थव्यवस्था
की चपेट में आकर आत्महत्या
कर रहे हैं
भूख से कम और धर्म से
ज्यादा लोग मर रहे हैं
पानी स्वयं शर्म से
पानी पानी होकर
उतर गया जमीन के बहुत नीचे
प्रदूषण से सुरबाला हो चाहे पुष्प
मुरछा रहे हैं चाहे कितना भी सींचे।
ऐसे समय में जबकि दोगले
और खोखले इंसानों की भरमार है
जहां घर हो, प्रेम हो, शादी हो
सभी कुछ व्यापार है
आदमी की रीढ़ की हड्डी
कैसे ठीक है पता नहीं
कहीं ऐसा तो नहीं
कि रीढ़ हो ही नहीं
किसी और तकनीक से पीठ का संतुलन
बना हो।
जो भी हो लेकिन यदि
रीढ़ है तो किसी आश्चर्य से कम नहीं।

 लेखक एक कवि है.

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